बसंती हवा


खामोशियों को चीरते ,मदहोशियाँ बिखेरते ;
सनसनाहटें भरी, वसंत की हवा चली ;
स्वच्छ आसमान में ,सूर्य मध्यमान में,
धूप को पछारते, वसंत की हवा चली ;
मंजारों से लद गए हैं ,आम्र डालियाँ सभी।,
गूंजने  लगे हैं अब ,कोयलों के कूक भी ;
सूखती नदी में भी ,जान सी है आ गई ;
इस तरह से मस्त हो ,वसंत की हवा चली।

(कवि मनीष सोलंकी )