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ग़ज़ल

कभी तो यूँ ही तुम्हे याद आती होगी मेरी
तेरे आँखों से आँसुयें भी छलकते होंगे
कभी तो बातें तुम्हे याद आती होगी मेरी
अधूरे रह गए सपने सभी चुभते होंगे
वो मेरा छेड़ना हर वक़्त तुमको बेमतलब
शरारतें मेरी तुम्हे खलती होंगी

वो तेरा रूठ के चेहरे को घुमा लेना,फिर
मेरा मनाना तुमको याद तो आता होगा  
हमे है याद वो जुल्फों की भीनी सी खुशबू
तुम्हे भी हर छुअन की याद तो आती होंगी
कितने हसीन थे वो प्यार के कुछेक लम्हें
कभी ये होठो पर मुस्कान तो  लाती होगी। 
( कवि मनीष सोलंकी )

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आँसू

सुख-दुख के आँसू मे तू अंतर बतला दे, बहते हैं नयानो से ही, तू घर बतला दे; दोनो मे ही लवन घुले हैं, माप बता दे, गालों पर कैसा है उनका, छाप बता दे। दुख मे मन हल्का होता है , सुख मे उसका काम बता दे ; बता सके तो दोनो का तू , अलग -अलग दो नाम बता दे। प्रसव-पीड़ा मे मामतामय प्यार के आँसू, दुल्हन के दो अलग-अलग संसार के आँसू; बता सके तो तू इनमे अंतर बतला दे, बहते हैं नयनो से ही तू घर बतला दे।

बुड़बक बनाते हैं

भारत के भोले लोगों को बुड़बक बनाते हैं खुद को ये  साधु-संत और ज्ञानी बताते हैं, ये  नाम  मोदी,   रामदेव   जैसे   हैं   मगर है  वर्ग  वही  जिसमें  आशाराम  आते  हैं। थोड़े  हैं  छुट्टे  लोग, थोड़े आर एस एस  से कहते थे काला  धन  को  लाएँगे  विदेश से, क्या खो गई है सूची जिसमें नाम सब के थे? या  फिर  हैं भाजपा  के ज्यादा  काँग्रेस से? अच्छे  दिनों  के  ख्वाब सारे   टूट  ही  गए जो  कुछ  थे नोटबंदी  में  वो लुट  ही  गए, महिला थी एक मित्र वो भी  छोड़कर  गई उनकी  भी  छूटी  थी  हमारे  छूट  ही  गए। जनता बिलख   रही  है  कोई  सुध  नहीं  है छाती  बहुत  बड़ी  है   मगर   दूध  नहीं   है, वो  नरपति   जो   भोगी   और   स्वार्थी  रहे राजद्रोही   है,    वो   कोई   भूप   नहीं   है । _ मनीष सोलंकी

कहाँ चली-कहाँ चली

हे रूपसी, हे प्रेयसी, सुलोचना, हे कामिनी उतंग वक्ष धारिणी, कहाँ चली-कहाँ चली? वो कौन सा डगर कहो,वो कौन सा नगर कहो जिसे सजाने के लिए,जिसे बसाने के लिए अतृप्त छोड़कर चली,हृदय को तोड़कर चली अटूट प्रेम डोर को जो खंड खंड कर चली। हे निर्मला हे रागिनी,कलश-कटि की स्वामिनी उतंग वक्ष धारिणी कहाँ चली-कहाँ चली? ये धर्म कैसा है कहो,ये न्याय कैसा है कहो किस ग्रंथ से लिया गया अध्याय कैसा है कहो कि जो सिखाये प्रेम की अवहेलना,अवमानना कि जिसमें हो हृदय से खेलना,उसे विदारना। हे  मोहिनी, लुभावनी,  हे अंग- अंग  दामिनी उतंग वक्ष  धारिणी, कहाँ चली- कहाँ चली?                                        __मनीष सोलंकी