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दिल मांगे मोर



एक सवाल मेरे जहन में ,
उठती थी बार -बार
कि क्यों किया मैने
उससे इज़हार ?
क्यों नहीं करता रहा
छुप -छुप के प्यार ?

मैंने जब भी जताना चाहा उससे प्यार
केवल नफरत ही मिली बार -बार ;
जितनी भी निभाने की सोची वफा
वो उतनी ही होती गई खफ़ा।

सब दोस्तों ने मुझे बहकाया
एक सिगरेट मुझे थमाया
मुझे भी जोर से गुस्सा आया
मैंने सिगरेट सुलगाया;

फिर उसके सामने जाकर
पीने लगा दिखाकर
कुछ पूछने लगी वो मुझसे
तो भाग गया मैं शर्माकर।

वो समझी मुझको लोफर
पर मैं तो हूँ एक जोकर ;
उसके नज़र में हूँ बेकार
फिर भी करता हूँ उसी से प्यार।

मैं सोचता था कि क्यों किया
उसने मुझे इग्नोर ;
लेकिन पता चला जब तब
कहते सुना उसे सखियों से ;
ये दिल मांगे मोर ,ये दिल मांगे मोर।


(कवि मनीष सोलंकी )



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