कहाँ चली-कहाँ चली










हे रूपसी,हे प्रेयसी,सुलोचना,हे कामिनी
उतंग वक्ष धारिणी, कहाँ चली-कहाँ चली?

वो कौन सा डगर कहो,वो कौन सा नगर कहो
जिसे सजाने के लिए,जिसे बसाने के लिए
अतृप्त छोड़कर चली,हृदय को तोड़कर चली
अटूट प्रेम डोर को जो खंड खंड कर चली।

हे निर्मला हे रागिनी,कलश-कटि की स्वामिनी
उतंग वक्ष धारिणी कहाँ चली-कहाँ चली?

ये धर्म कैसा है कहो,ये न्याय कैसा है कहो
किस ग्रंथ से लिया गया अध्याय कैसा है कहो
कि जो सिखाये प्रेम की अवहेलना,अवमानना
कि जिसमें हो हृदय से खेलना,उसे विदारना।

हे  मोहिनी, लुभावनी,  हे अंग- अंग  दामिनी
उतंग वक्ष  धारिणी, कहाँ चली- कहाँ चली?