लॉकडाउन में बइठल-बइठल


लॉकडाउन में बइठल-बइठल देह भईल बा जाम,
समझ न आबे अब हमरा के कैसे होई काम।
तीन महीना बइठल खइलीं,खेललीं आदा-पादा,
चौका बरतन मिल के कइलीं,का नर,का मादा।
झरल रूपईया-पैसा सभे, थोड़ बहुत जे रहल,
अब न घर में कबहुँ हमरा रहे चहल-पहल।
छूटल नोकरी मिलल न, मिलल गाढ़ उपदेश,
कहलन तारणहार,आत्मनिर्भर अब होईहें देश।
पहिले कहलन सब सम्हार लेव,दुख न होई जादा,
अब बुझाल कि कुर्सी वाला कइलस झूठा वादा।
कोरोना के डर से नोकरी तबहुँ बाद में छूटल,
पहिले तो इनके कहला पर थरिया-लोटा फूटल।
का होई, कईसे होई, अब कुछ नईखे बुझात,
केकर पेट भरी एतना में, एके मुठ्ठी भात।

सखे







श्वेत शंखिनी चंद्रबदन ये
जननी लाख विचारों की,
व्यक्त नहीं कर सकता तुझसे
मन का अंतरद्वन्द सखे।

छल -छल ,कल-कल यौवन पर,
क्यों हा नियंत्रण लगा रहे ?
प्यासा भँवरा तड़प रहा है
व्यर्थ बहे मकरंद सखे !

बिना भँवर अमराई सुनी ,
सुने सारे वन -उपवन ;
सरिता सुनी, पर्वत सुने,
कर दे सब आनंद सखे !

हल रेखा में बीज पड़े ना
व्यर्थ भूमि की उर्वरता ,
मरे जगत मे प्राणी भूखे
पड़े रहे रस्कन्द  सखे।

मिलती क्या समृद्धि जगत में ,
संचित करके यौन निधि ?
दान में ही कल्याण निहित है
पल यौवन के चंद सखे।