सखे







श्वेत शंखिनी चंद्रबदन ये
जननी लाख विचारों की,
व्यक्त नहीं कर सकता तुझसे
मन का अंतरद्वन्द सखे।

छल -छल ,कल-कल यौवन पर,
क्यों हा नियंत्रण लगा रहे ?
प्यासा भँवरा तड़प रहा है
व्यर्थ बहे मकरंद सखे !

बिना भँवर अमराई सुनी ,
सुने सारे वन -उपवन ;
सरिता सुनी, पर्वत सुने,
कर दे सब आनंद सखे !

हल रेखा में बीज पड़े ना
व्यर्थ भूमि की उर्वरता ,
मरे जगत मे प्राणी भूखे
पड़े रहे रस्कन्द  सखे।

मिलती क्या समृद्धि जगत में ,
संचित करके यौन निधि ?
दान में ही कल्याण निहित है
पल यौवन के चंद सखे।