वासना की उपासाना







करूँ वासना की उपासना , और करूँ उसका सम्मान ;
रहूँ मैं उसकी छात्र-छाया में,हर पल उसके भक्त समान ;
बनूँ मैं मतबाला सा भँवरा, वासना का गुणगान करूँ ;
चढ़ कलियों पर पुष्प बना दूँ ,सबका मैं कल्याण करूँ ;
रैना गुजरे अर्ध खिले पुष्पों के छोटे से मुख में ;
पवन के झोंकों में पंखुड़ियाँ पकड़े हम सहवास करें ;
अधरों का स्पर्श परागों में रस का संचार करें ;
खिल जाये पंखुरियां उसके यौवन को साकार करें;
एक ही बार नहीं , ये अवसर अब बारम्बार मिले ,
भिन्न-भिन्न रंग-रूप से शोभित कलियों का संसार मिले;
कभी न पतझड़ का मौसम हो , नित्य खिले नूतन कलियाँ ;
हर प्रभात एक नया वसंत हो और नई हो रंगरलियाँ ;
एक अकेला भँवरा मैं ही , सारे बाग-बगीचे में ;
पान करूँ सब कलियों का रस , हो ऊपर या नीचे में ;
वासना हो इतनी प्रवल कि कोई कलियाँ रुष्ट न हो ;
छुधा कभी न पूरी होए , रूह कभी संतुष्ट न हो;
हर पल ये ही धुन हो मेरी , करूँ मैं सब का ही उद्धार ;
कभी न कण भर खाली होए , ऊर्जस्वित ये वीर्य अपार।