इश्क में हारा हूँ
यहाँ-वहाँ , इधर-उधर, गली-कूची, गाँव-शहर, भटकता हुआ एक पागल आवारा हूँ, हाँ-हाँ मैं वही हूँ जो इश्क में हारा हूँ। इसकी नज़र, उसकी नज़र, कोई बनी शाम-ओ-सहर, मिथ्या को सत्य मानकर जीवन गुज़ारा हूँ, हाँ-हाँ मैं वही हूँ जो इश्क में हारा हूँ। कर्तव्य से बिमूढ़ हूँ, हद से भी ज्यादा रूढ़ हूँ, गुजर-बसर को ढूंढता कोई सहारा हूँ, हाँ-हाँ मैं वही हूँ जो इश्क में हारा हूँ। एक दौर था, कुछ और था, लक्ष्य था, जब सोंच था, भावी भविष्य का चमकता सितारा हूँ, हाँ-हाँ मैं वही हूँ जो इश्क में हारा हूँ। __ मनीष सोलंकी