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निराशा


नही  है कोई आशा  अब तो ,
जीवन  रफ्तारों में ,
किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा हूँ ,
दुनिया के मझधारों में।

लाख समुद्र लांघ  गए ,
पर ,मिला नहीं कोई मोती ,
लगता है की रात अँधेरी
और नहीं कोई ज्योति।

सुनने में तो आया था कि
दो आधारी है जीवन ,
सुख और दुःख का यहां बराबर ,
हुआ करता है समिश्रण।

लेकिन अब लगता है ,
ये बातें भी दो आधारी है ;
सच और झूठ का इसमे भी ,
बराबर हिस्सेदारी है।

समय बीतता  जाता है
और परिवर्तन सरकारों में ,
पुरखों से हम शामिल हैं
गरीबी बेरोजगारों में।

हुआ न कुछ भी हासिल अब तो,
जीवन के दरकारों में ,
किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा हूँ
दुनिया के मझधारों में।

(कवि मनीष सोलंकी )

जीवन ; एक संघर्ष पेट की खातिर
इजहारइजहार-२
इजहार-३ ब्रेकअप पार्टी
विवाह वासना की उपासाना
नारी देश के दुश्मन
कि जो तु मुस्कुराती है अब कहा
ऐसी जुदाई क्या खूब लड़े नैना मेरे
बदहाल पश्चाताप
पत्नी - देवी उमंग
Desire इश्क घटनाक्रम
बसंती हवा अचरज
ये जमाना हनीमून
विनय दिल मांगे मोर
व्यथा मुझको मेरा प्यार मिला
जुल्फों के जूं अधूरे सपने
निराशा सखे
ग़ज़ल जननी
मैं कलाकार, संगमरमर बदन

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आँसू

सुख-दुख के आँसू मे तू अंतर बतला दे, बहते हैं नयानो से ही, तू घर बतला दे; दोनो मे ही लवन घुले हैं, माप बता दे, गालों पर कैसा है उनका, छाप बता दे। दुख मे मन हल्का होता है , सुख मे उसका काम बता दे ; बता सके तो दोनो का तू , अलग -अलग दो नाम बता दे। प्रसव-पीड़ा मे मामतामय प्यार के आँसू, दुल्हन के दो अलग-अलग संसार के आँसू; बता सके तो तू इनमे अंतर बतला दे, बहते हैं नयनो से ही तू घर बतला दे।

सखे

श्वेत शंखिनी चंद्रबदन ये जननी लाख विचारों की, व्यक्त नहीं कर सकता तुझसे मन का अंतरद्वन्द सखे। छल -छल ,कल-कल यौवन पर, क्यों हा नियंत्रण लगा रहे ? प्यासा भँवरा तड़प रहा है व्यर्थ बहे मकरंद सखे ! बिना भँवर अमराई सुनी , सुने सारे वन -उपवन ; सरिता सुनी, पर्वत सुने, कर दे सब आनंद सखे ! हल रेखा में बीज पड़े ना व्यर्थ भूमि की उर्वरता , मरे जगत मे प्राणी भूखे पड़े रहे रस्कन्द  सखे। मिलती क्या समृद्धि जगत में , संचित करके यौन निधि ? दान में ही कल्याण निहित है पल यौवन के चंद सखे।

लॉकडाउन में बइठल-बइठल

लॉकडाउन में बइठल-बइठल देह भईल बा जाम, समझ न आबे अब हमरा के कैसे होई काम। तीन महीना बइठल खइलीं,खेललीं आदा-पादा, चौका बरतन मिल के कइलीं,का नर,का मादा। झरल रूपईया-पैसा सभे, थोड़ बहुत जे रहल, अब न घर में कबहुँ हमरा रहे चहल-पहल। छूटल नोकरी मिलल न, मिलल गाढ़ उपदेश, कहलन तारणहार,आत्मनिर्भर अब होईहें देश। पहिले कहलन सब सम्हार लेव,दुख न होई जादा, अब बुझाल कि कुर्सी वाला कइलस झूठा वादा। कोरोना के डर से नोकरी तबहुँ बाद में छूटल, पहिले तो इनके कहला पर थरिया-लोटा फूटल। का होई, कईसे होई, अब कुछ नईखे बुझात, केकर पेट भरी एतना में, एके मुठ्ठी भात।