क्या खूब लड़े नैना मेरे ,
पहले दो थे ,अब चार हुए ,
पहले तो शौक मोहब्बत था,…
अब आदत से लाचार हुए ;
महबूब के जुल्फों का साया ,
अब खूब सुहाना लगता है ,
माँ के आँचल में सोने का।
अंदाज़ पुराना लगता है।
नव यौवन की लाली को ,
आँखों से ओझल कौन करे ,
अहो भाग्य थे मेरे जो ,
इन बक्छो के दीदार हुए ;
वक्ष मिले बचपन में भी ,
पर ऐसा था एहसास कहाँ
जिस दूध ने सींचा था हमको ,
वो दूध सभी बेकार हुए।
( कवि मनीष सोलंकी )
पहले दो थे ,अब चार हुए ,
पहले तो शौक मोहब्बत था,…
अब आदत से लाचार हुए ;
महबूब के जुल्फों का साया ,
अब खूब सुहाना लगता है ,
माँ के आँचल में सोने का।
अंदाज़ पुराना लगता है।
नव यौवन की लाली को ,
आँखों से ओझल कौन करे ,
अहो भाग्य थे मेरे जो ,
इन बक्छो के दीदार हुए ;
वक्ष मिले बचपन में भी ,
पर ऐसा था एहसास कहाँ
जिस दूध ने सींचा था हमको ,
वो दूध सभी बेकार हुए।
( कवि मनीष सोलंकी )