पेट की खातिर

ठुमके लगा रही थी , नुक्कड़ पे उस गली के ,
घेरे खड़े थे उसको लोग मोहल्ले के,
निगाहें थी टिकी उसके बदन पे सबकी ,
जो उन फटे कपड़ों में स्पस्ट दिख रहा था;
बिखरे थे बाल उसके मैले कुचैले कपडे ,
दिखने में एकदम से पागल सी लग रही थी
सब देख के हँसते थे कोई वाह -वाह करता था
कुछ टोन भी कसते थे कोई आ हा हा करता था ;
पागल नही थी वो , सब कुछ समझ रही थी
पर पेट के खातिर ये काम कर रही थी
गरीब एक औरत लाचार एक औरत
नुक्कड़ पे उस गली के ठुमके लगा रही थी।

                                                                                          (कवि मनीष सोलंकी )

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