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अब कहाँ

अब कहाँ अब कहाँ है मिलता ईश्वर-अल्लाह में विश्वास अटूट ,
ईसा और गुरु गोविन्द से भी विश्वास रहा है उठ ;
श्रद्धा नहीं दिखती है पहले जैसे अब के लोगों में ,
सोंच है शायद अब लोगों का क्या रखा है देवों में ;
दुनियाँ के इस भूल-भुलैया में ही घूम रहे हैं लोग ,
धर्म-कर्म कुछ नहीं जानते , धन का बस जकड़ा है लोभ ;
माता-पिता को बोझ समझते, दुश्मन यहाँ पे भ्राता है ,
पति और पत्नी में अब तो बस शरीर का नाता है.

                                                                         ( कवि मनीष सोलंकी )

जीवन ; एक संघर्ष पेट की खातिर
इजहारइजहार-२
इजहार-३ ब्रेकअप पार्टी
विवाह वासना की उपासाना
नारी देश के दुश्मन
कि जो तु मुस्कुराती है अब कहा
ऐसी जुदाई क्या खूब लड़े नैना मेरे
बदहाल पश्चाताप
पत्नी - देवी उमंग
Desire इश्क घटनाक्रम
बसंती हवा अचरज
ये जमाना हनीमून
विनय दिल मांगे मोर
व्यथा मुझको मेरा प्यार मिला
जुल्फों के जूं अधूरे सपने
निराशा सखे
ग़ज़ल जननी
मैं कलाकार, संगमरमर बदन

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आँसू

सुख-दुख के आँसू मे तू अंतर बतला दे, बहते हैं नयानो से ही, तू घर बतला दे; दोनो मे ही लवन घुले हैं, माप बता दे, गालों पर कैसा है उनका, छाप बता दे। दुख मे मन हल्का होता है , सुख मे उसका काम बता दे ; बता सके तो दोनो का तू , अलग -अलग दो नाम बता दे। प्रसव-पीड़ा मे मामतामय प्यार के आँसू, दुल्हन के दो अलग-अलग संसार के आँसू; बता सके तो तू इनमे अंतर बतला दे, बहते हैं नयनो से ही तू घर बतला दे।

बुड़बक बनाते हैं

भारत के भोले लोगों को बुड़बक बनाते हैं खुद को ये  साधु-संत और ज्ञानी बताते हैं, ये  नाम  मोदी,   रामदेव   जैसे   हैं   मगर है  वर्ग  वही  जिसमें  आशाराम  आते  हैं। थोड़े  हैं  छुट्टे  लोग, थोड़े आर एस एस  से कहते थे काला  धन  को  लाएँगे  विदेश से, क्या खो गई है सूची जिसमें नाम सब के थे? या  फिर  हैं भाजपा  के ज्यादा  काँग्रेस से? अच्छे  दिनों  के  ख्वाब सारे   टूट  ही  गए जो  कुछ  थे नोटबंदी  में  वो लुट  ही  गए, महिला थी एक मित्र वो भी  छोड़कर  गई उनकी  भी  छूटी  थी  हमारे  छूट  ही  गए। जनता बिलख   रही  है  कोई  सुध  नहीं  है छाती  बहुत  बड़ी  है   मगर   दूध  नहीं   है, वो  नरपति   जो   भोगी   और   स्वार्थी  रहे राजद्रोही   है,    वो   कोई   भूप   नहीं   है । _ मनीष सोलंकी

कहाँ चली-कहाँ चली

हे रूपसी, हे प्रेयसी, सुलोचना, हे कामिनी उतंग वक्ष धारिणी, कहाँ चली-कहाँ चली? वो कौन सा डगर कहो,वो कौन सा नगर कहो जिसे सजाने के लिए,जिसे बसाने के लिए अतृप्त छोड़कर चली,हृदय को तोड़कर चली अटूट प्रेम डोर को जो खंड खंड कर चली। हे निर्मला हे रागिनी,कलश-कटि की स्वामिनी उतंग वक्ष धारिणी कहाँ चली-कहाँ चली? ये धर्म कैसा है कहो,ये न्याय कैसा है कहो किस ग्रंथ से लिया गया अध्याय कैसा है कहो कि जो सिखाये प्रेम की अवहेलना,अवमानना कि जिसमें हो हृदय से खेलना,उसे विदारना। हे  मोहिनी, लुभावनी,  हे अंग- अंग  दामिनी उतंग वक्ष  धारिणी, कहाँ चली- कहाँ चली?                                        __मनीष सोलंकी