निराशा


नही  है कोई आशा  अब तो ,
जीवन  रफ्तारों में ,
किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा हूँ ,
दुनिया के मझधारों में।

लाख समुद्र लांघ  गए ,
पर ,मिला नहीं कोई मोती ,
लगता है की रात अँधेरी
और नहीं कोई ज्योति।

सुनने में तो आया था कि
दो आधारी है जीवन ,
सुख और दुःख का यहां बराबर ,
हुआ करता है समिश्रण।

लेकिन अब लगता है ,
ये बातें भी दो आधारी है ;
सच और झूठ का इसमे भी ,
बराबर हिस्सेदारी है।

समय बीतता  जाता है
और परिवर्तन सरकारों में ,
पुरखों से हम शामिल हैं
गरीबी बेरोजगारों में।

हुआ न कुछ भी हासिल अब तो,
जीवन के दरकारों में ,
किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा हूँ
दुनिया के मझधारों में।

(कवि मनीष सोलंकी )

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निराशा सखे
ग़ज़ल जननी
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